समय, समाज और उपन्यास / मधुरेश
By: मधुरेश, Madhuresh [लेखक, author.].
Publisher: नई दिल्ली : भारतीय ज्ञानपीठ, 2013Description: 224p.ISBN: 9789326352314.Other title: Samay, Samaj aur Upanyas.Subject(s): साहित्य में समय | उपन्यासों में सामाजिक प्रतिबिंब | सामाजिक टिप्पणियों के रूप में उपन्यास | उपन्यासों में समय और सामाजिक परिवर्तनDDC classification: 891.43309 Summary: अन्य साहित्यरूपों की अपेक्षा उपन्यास कदाचित् सर्वाधिक समाज सापेक्ष रचनारूप है। अपने समाज के प्रति उसके इस गहरे लगाव के संकेत उसके जन्म से ही लक्षित किए जा सकते हैं। जब रॉल्फ फॉक्स ने उपन्यास को जीवन के महाकाव्य के रूप में परिभाषित किया तब समाज के प्रति उसकी गहरी संपृक्ति ही शायद इसके मूल में थी । उपन्यास यह काम छोटे-छोटे सघन और कलात्मक ब्यौरों के द्वारा करता है। पात्रों की जो दुनिया वह रचता है वह इन ब्यौरों से ही सम्पूर्ण, वास्तविक और विश्वसनीय बनती है । उपन्यास में कोई भी समय हो सकता है - हजारों साल पीछे का सुदूरवर्ती अतीत जो अब विस्मृति के धुन्ध और धुँधलके में खो चुका है या फिर वह समय जो भविष्य के रूप में अभी आने को है। उसके पैर उसके अपने समय में ही होते हैं। अतीत और भविष्य की भी उपन्यास ने अपने जन्म से अबतक अपनी जरूरतों के हिसाब से अनेक प्रविधियाँ तलाश की हैं और अभी भी इस तलाश का कोई अन्त नहीं है। इस प्रक्रिया में उसने स्वयं को इतना बदला है कि उसके आरम्भिक रूप से उसकी पहचान भी असम्भव है। अपने समय के प्रमुख कलारूप उपन्यास को जानने- समझने के लिए मधुरेश की प्रस्तुत कृति 'समय, समाज और उपन्यास ' एक ज़रूरी और उपयोगी हस्तक्षेप है।Item type | Current location | Call number | Status | Date due | Barcode |
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Books | NASSDOC Library | 891.43309 MAD-S (Browse shelf) | Available | 53470 |
Includes bibliographical references and index.
अन्य साहित्यरूपों की अपेक्षा उपन्यास कदाचित् सर्वाधिक समाज सापेक्ष रचनारूप है। अपने समाज के प्रति उसके इस गहरे लगाव के संकेत उसके जन्म से ही लक्षित किए जा सकते हैं। जब रॉल्फ फॉक्स ने उपन्यास को जीवन के महाकाव्य के रूप में परिभाषित किया तब समाज के प्रति उसकी गहरी संपृक्ति ही शायद इसके मूल में थी । उपन्यास यह काम छोटे-छोटे सघन और कलात्मक ब्यौरों के द्वारा करता है। पात्रों की जो दुनिया वह रचता है वह इन ब्यौरों से ही सम्पूर्ण, वास्तविक और विश्वसनीय बनती है ।
उपन्यास में कोई भी समय हो सकता है - हजारों साल पीछे का सुदूरवर्ती अतीत जो अब विस्मृति के धुन्ध और धुँधलके में खो चुका है या फिर वह समय जो भविष्य के रूप में अभी आने को है। उसके पैर उसके अपने समय में ही होते हैं। अतीत और भविष्य की भी उपन्यास ने अपने जन्म से अबतक अपनी जरूरतों के हिसाब से अनेक प्रविधियाँ तलाश की हैं और अभी भी इस तलाश का कोई अन्त नहीं है। इस प्रक्रिया में उसने स्वयं को इतना बदला है कि उसके आरम्भिक रूप से उसकी पहचान भी असम्भव है।
अपने समय के प्रमुख कलारूप उपन्यास को जानने- समझने के लिए मधुरेश की प्रस्तुत कृति 'समय, समाज और उपन्यास ' एक ज़रूरी और उपयोगी हस्तक्षेप है।
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