000 | 02373 a2200193 4500 | ||
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999 |
_c38867 _d38867 |
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020 | _a9789384343033 | ||
082 |
_a294.5436 _bVIV-B |
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100 |
_aविवेकानंद, स्वामी _qSwami Vivekanand |
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245 |
_aभक्तियोग _cस्वामी, विवेकानंद |
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246 | _aBhaktiyoga | ||
260 |
_bप्रभात प्रकाशन _c2023 _aनई दिल्ली |
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300 | _a134p. | ||
520 | _aनिष्कपट भाव से ईश्वर की खोज को ‘भक्तियोग’ कहते हैं। इस खोज का आरंभ, मध्य और अंत प्रेम में होता है। ईश्वर के प्रति एक क्षण की भी प्रेमोन्मत्तता हमारे लिए शाश्वत मुक्ति को देनेवाली होती है। ‘भक्तिसूत्र’ में नारदजी कहते हैं, ‘‘भगवान् के प्रति उत्कट प्रेम ही भक्ति है। जब मनुष्य इसे प्राप्त कर लेता है, तो सभी उसके प्रेमपात्र बन जाते हैं। वह किसी से घृणा नहीं करता; वह सदा के लिए संतुष्ट हो जाता है। इस प्रेम से किसी काम्य वस्तु की प्राप्ति नहीं हो सकती, क्योंकि जब तक सांसारिक वासनाएँ घर किए रहती हैं, तब तक इस प्रेम का उदय ही नहीं होता। भक्ति कर्म से श्रेष्ठ है और ज्ञान तथा योग से भी उच्च है, क्योंकि इन सबका एक न एक लक्ष्य है ही, पर भक्ति स्वयं ही साध्य और साधन-स्वरूप है।’’ | ||
650 |
_aHinduism _zIndia |
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650 |
_a हिन्दू धर्म _zभारत |
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650 |
_aReligious thought _zIndia |
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650 |
_aphilosophy _zIndia |
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942 |
_2ddc _cBK |