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उत्तर कबीर नंगा फ़कीर / के. एन. तिवारी

By: तिवारी, के. एन [लेखक].
Publisher: नई दिल्ली : गांधी स्मृति एवं दर्शन समिति, २०२०Description: ix, २२८पृ.ISBN: 9789384155230.Subject(s): कबीर, संत, 1440-1518 -- दर्शन। | गांधी, महात्मा, 1869-1948 -- दर्शन। | भारतीय दर्शन। | संत -- दर्शन -- भारत। | आध्यात्मिक जीवन -- भारत। | सत्य -- धार्मिक पक्ष। | संवाद -- धार्मिक पक्ष -- भारत।DDC classification: 891.433 Summary: दोनों महात्माओं की वार्त्ताएँ अब "महामानव" से हटकर दुनिया की सत्यता पर आकर टिक गयी थीं। सो गांधी को भी कहना पड़ा। "ज्ञानेश्वर! जिन सन्दर्भों में दुनिया की व्याख्या आप कर रहे हैं, वह शाश्वत् सत्य का एक अलग और यथार्थ रूप है। पर दुनिया में रहने वाले लोग इस दुनिया को केवल झूठ या माया या मोह का प्रतीक समझकर जीवन नहीं जी सकते। 'जीवन' भी तो सत्य का ही एक अटल रूप है। जो शाश्वत और दृढ़ है। यह बिना विश्वास और ईश्वरीय आस्था के निर्बल हो जाता है। इसलिए जो लोग इन दोनों को साथ लेकर जीवन रूपी सत्य को नहीं जीते वे खुद को धोखा देते हैं। मैं तो बस अपने समय के सत्य को जी रहा था। इसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं किया था।" मोहनचन्द नाम सुनते ही कबीर सन्न रह गए। उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा। आँखें खुली रह गयीं। सोचने लगे- "क्या ये सचमुच वही गांधी हैं। जिनका नाम मैंने काशी की गलियों से लेकर पूरे भारत में सुना था। या कोई और हैं? सचमुच ! यदि ये वही गांधी हैं तो इन्हें मेरा शत-शत प्रणाम।" कहते हैं कि गांधी का स्मरण होते ही उस समय कबीर के मन में आत्मीयता का ऐसा संचार हुआ कि उनका रोम-रोम पुलक उठा। वे एकटक गांधी को देखते रहे। बहुत देर तक देखते रहने के कारण कबीर को अपने आप पर झल्लाहट भी हुई। सोचने लगे- "मैं क्यों नहीं पहचान पाया इस व्यक्ति को? इस शख्सियत को?" क्यों नहीं दे सका अन्तरात्मा में इस महात्मा को। जिसको पूरा देश "बापू" कहकर पुकारता है उसे अन्तर्मन से तो पहचानना ही चाहिए।
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891.433 TIW-U (Browse shelf) Available 54813

दोनों महात्माओं की वार्त्ताएँ अब "महामानव" से हटकर दुनिया की सत्यता पर आकर टिक गयी थीं। सो गांधी को भी कहना पड़ा। "ज्ञानेश्वर! जिन सन्दर्भों में दुनिया की व्याख्या आप कर रहे हैं, वह शाश्वत् सत्य का एक अलग और यथार्थ रूप है। पर दुनिया में रहने वाले लोग इस दुनिया को केवल झूठ या माया या मोह का प्रतीक समझकर जीवन नहीं जी सकते। 'जीवन' भी तो सत्य का ही एक अटल रूप है। जो शाश्वत और दृढ़ है। यह बिना विश्वास और ईश्वरीय आस्था के निर्बल हो जाता है। इसलिए जो लोग इन दोनों को साथ लेकर जीवन रूपी सत्य को नहीं जीते वे खुद को धोखा देते हैं। मैं तो बस अपने समय के सत्य को जी रहा था। इसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं किया था।" मोहनचन्द नाम सुनते ही कबीर सन्न रह गए। उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा। आँखें खुली रह गयीं। सोचने लगे- "क्या ये सचमुच वही गांधी हैं। जिनका नाम मैंने काशी की गलियों से लेकर पूरे भारत में सुना था। या कोई और हैं? सचमुच ! यदि ये वही गांधी हैं तो इन्हें मेरा शत-शत प्रणाम।" कहते हैं कि गांधी का स्मरण होते ही उस समय कबीर के मन में आत्मीयता का ऐसा संचार हुआ कि उनका रोम-रोम पुलक उठा। वे एकटक गांधी को देखते रहे। बहुत देर तक देखते रहने के कारण कबीर को अपने आप पर झल्लाहट भी हुई। सोचने लगे- "मैं क्यों नहीं पहचान पाया इस व्यक्ति को? इस शख्सियत को?" क्यों नहीं दे सका अन्तरात्मा में इस महात्मा को। जिसको पूरा देश "बापू" कहकर पुकारता है उसे अन्तर्मन से तो पहचानना ही चाहिए।

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